बाजारवाद
और भारतीय पत्रकारिता मूल्य
भारतीय
पत्रकारिता का अपना एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। इसके अतीत पर अगर नज़र डालें तो हम
पाते हैं कि भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत ही अन्याय,दमन
और शोषण के ख़िलाफ आवाज़ उठाने से होती है । यानि इस दौरान की पत्रकारिता के
केन्द्र में ‘लोकहित’ अनिवार्य
रुप से शामिल था । देश की आज़ादी में भारतीय पत्रकारिता के अमूल्य योगदान को सदा
याद किया जाता है और अनंत काल तक किया जाता रहेगा। तब से लेकर आज तक तमाम
उतार-चढ़ावों से गुज़रने के बावजूद पत्रकारिता के विकास का पहिया सरपट दौड़ रहा है
। समाचार पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो-टेलीविजन चैनल, इंटरनेट के बढ़ते प्रचार-प्रसार से इसे समझा जा सकता है । 4 जनवरी 2016
के दैनिक भास्कर अख़बार में प्रकाशित वर्ल्ड
एसोसिएशन ऑफ न्यूज़पेपर्स एंड न्यूज़ पब्लिशर्स की
एक रिपोर्ट के अनुसार दैनिक भास्कर 35.57 लाख़ प्रसार संख्या के साथ विश्व का चौथा व देश का सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला अख़बार बन गया है । जापान के
शीर्ष दो अख़बारों योमीउरी शिनबुन तथा असाही शिनबुन व अमेरिका के यूएस टुडे के बाद चौथा स्थान दैनिक भास्कर को दिया गया है । सिर्फ प्रिंट ही नहीं बल्कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के
क्षेत्र में भी लगातार वृद्धि जारी है ।
ट्राई
(टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया) के आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान में निजी
सेक्टर में करीब 245 एफ.एम. चैनल तथा आकाशवाणी के 414 चैनल प्रसारण कर रहे हैं । प्रिंट से रेडियो, टीवी से सिनेमा और वर्तमान में इंटरनेट, सोशल
मीडिया से चलकर स्मार्टफोन से जन्मे ‘एप्प जर्नलिज्म’ तक भारतीय पत्रकारिता का दायरा बढ़ता ही जा रहा है । परन्तु वक़्त के साथ-साथ हुए तकनीकी विकास और पूंजी के बढ़ते निवेश के
कारण भारतीय पत्रकारिता के बुनियादी ढ़ांचे का
विकास तो हुआ लेकिन उसके साथ आने वाले आर्थिक-राजनीतिक दबाव के कारण नैतिक मूल्यों में गिरावट नज़र आने लगी । जो पत्रकारिता आज़ादी के पहले मिशन के रुप में स्थापित थी, आज़ादी के बाद प्रोफेशन और वर्तमान में एक उद्योग में तब्दील हो चुकी
है ।
नब्बे
के दशक में भारतीय पत्रकारिता में विदेशी पूंजी के आगमन के साथ ही पत्रकारिता के
मूल्यों और दायित्वों की दशा और दिशा बदलने लगी । एक तरफ़ तो आज तक, ज़ी न्यूज़, एन.डी.टी.वी. जैसे नए-नए निजी टीवी
न्यूज़ चैनल खुले,अख़बारों का कलेवर बदलने लगा वहीं दूसरी
तरफ़ भारतीय पत्रकारिता के सामाजिक सरोकारों की ज़मीन पर मुनाफे की घुसपैठ भी होने
लगी। पत्रकारिता में बाज़ार के शामिल होने के कारण ही सर्कुलेशन, रैम (रेडियो ऑडियंस मेज़रमेन्ट),
टी.आर.पी.(टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट),वेब
हिट्स तथा डाउनलोड्स की अवधारणा का जन्म हुआ जिसने बाजार का एक पूरा तंत्र ही विकसित कर
दिया जहां सभी मीडिया समूह सबसे तेज़-सबसे पहले समाचार परोसने, ज़्यादा से ज़्यादा विज्ञापन
पाने की होड़ में शामिल होने लगे। इस होड़ ने ख़बरों के चुनाव, उसकी भाषा,प्रस्तुति शैली सबको बदलकर रख दिया
।
आदर्श
पत्रकारिता के मुख्यत: चार उद्देश्य माने गए हैं-
सूचना देना, शिक्षित करना, मनोरंजन
करना तथा जनमत का निर्माण करना । परन्तु पत्रकारिता पर बाज़ार के बढ़ते प्रभाव के
कारण इन्फोटेन्मेंट नामक
तत्व को प्रमुखता से शामिल कर लिया गया है । भारतीय पत्रकारिता पर बढ़ता पूंजी का
असर और उससे बढ़ती कमाई के आंकड़ों की तरफ यदि नज़र डालें तो हम पाते हैं कि यह
दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है । भारतीय मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर 2015 में फिक्की-केपीएमजी ने अपनी रिपोर्ट
प्रकाशित की है । इस रिपोर्ट के अनुसार 2013 के मुकाबले 2014 में मीडिया ने लगभग 11.07 प्रतिशत ज़्यादा व्यापार किया जो
करीब 1026 करोड़ रुपये
का है । इस रिपोर्ट के आकलन के मुताबिक इस उद्योग का विकास अगले कुछ वर्षों तक
लगभग 14 फीसदी तक रहने के आसार हैं । इसी रिपोर्ट के अनुसार टेलीविजन उद्योग ने
अकेले ही 474 करोड़
रुपये का व्यापार किया है । 263 करोड़ रुपये के साथ प्रिंट मीडिया दूसरे स्थान पर है । ऐसी बढ़ोतरी
रेडियो, फिल्म, संगीत आदि
माध्यमों के संदर्भ में भी दर्ज की गई है । साथ ही 2014 में विज्ञापनों के जरिये भी मीडिया ने 414 करोड़ रुपये कमाए जो 2014 की तुलना
में 14.02 फीसदी अधिक है । फिक्की-केपीएमजी की इस रिपोर्ट में प्रकाशित इन आंकड़ों
से भारतीय पत्रकारिता के एक फलते-फूलते उद्योग के रूप में स्थापित होने की पुष्टि
हो जाती है ।
जब
पत्रकारिता पर पूंजी का प्रभुत्व और मुनाफे का दबाव बढ़ेगा तो ज़ाहिर है कि मीडिया
संस्थानों द्वारा प्रसारित-प्रकाशित ख़बरों,रिपोर्टों,परिचर्चाओं,इत्यादि की विषय-वस्तु भी प्रभावित
होगी। बाज़ार द्वारा उत्पन्न इस प्रतिस्पर्धा में ख़बरों के प्रसारण के नाम पर ही
ख़बरों को मारा जाने लगा है । किसान, आदिवासी,दलित और महिलाएं जैसे हाशिए पर जी रहे लोगों की समस्याओं, मुद्दों को नज़रअंदाज़ कर उन ख़बरों की जगह घर वापसी, लव-जिहाद, मिशन पाकिस्तान, आरक्षण, अंडे-स्याही फेंकने, विदेश यात्रा, जहरीली बयानबाज़ी इत्यादि
राजनीतिक हित से जुड़ी ख़बरों को सौंप दी गई है । अपराध, क्रिकेट,
बॉलीवुड से जुड़ी ख़बरों को सनसनीख़ेज बनाकर पेश किया जाने लगा है । समाचारों का ट्रेन्ड तथा सोशल मीडिया पर उनका हैशटैग चलने लगा है । ख़बरों
की विविधता मरने लगी है । मीडिया महानगर केन्द्रित हो चला है । पाठक, श्रोता और दर्शकों को उपभोक्ता में तब्दील कर दिया गया है ।
आज
इन तमाम ख़ामियों से मीडिया संस्थानों की साख़ पर सवालिया निशान उठने लगे हैं
क्योंकि इससे समाचारों की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है । हालांकि इनसब के बावजूद
भारतीय पत्रकारिता की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है । बाज़ार व राजनीति के
दबाव को झेलते हुए इंटरनेट व सोशल मीडिया से लोगों में नई उम्मीदें भी जगी हैं ।
इसने ‘वैकल्पिक मीडिया’ तथा ‘सिटीजन जर्नलिस्ट’ की संकल्पना को जन्म
दिया है जहां समाज की मुख्यधारा से कटे तथा भेदभाव
से ग्रसित वर्ग की ताकतवर अभिव्यक्ति की गुंजाइश है । जहां हाशिये पर धकेल दिए गए
लोग अपने अधिकार,प्रशासनिक लापरवाही, भ्रष्टाचार, शोषण जैसे मुद्दों पर खुलकर अपनी
बात रख रहे हैं । सत्ता से सवाल पूछ रहे हैं । उनकी आलोचना कर रहे हैं । इसलिए
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि वर्तमान समय में भारतीय पत्रकारिता के समक्ष
बाज़ार से हाथ मिलाते हुए व्यापक स्तर पर अपनी पहुंच बढ़ाने के साथ-साथ दबे-
कुचलों, शोषित लोगों की ज़ुबान बनते हुए लोकतंत्र के चौथे खंभे के रुप में अपनी
प्रासंगिकता बनाए रखने की दोहरी चुनौती है ।
विकाश
कुमार
एम.फिल.
(जनसंचार)
महात्मा
गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
वर्धा, महाराष्ट्र-442005
संदर्भ
सूची-
फिक्की-केपीएमजी मीडिया रिपोर्ट-2015
http://www.trai.gov.in/
बेहतरीन
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