मीडिया का मनोविज्ञान और मीडिया/संचार
सिद्धांत ( Communication Theories )
‘मन’ के विज्ञान को मनोविज्ञान कहा जाता है । जहां मनोविज्ञान व्यक्ति को, समाज को तथा दोनों के अंतर्संबंधों को समझने का विज्ञान है, वहीं मीडिया व्यक्ति को, समाज को तथा
दोनों के अंतर्संबंधों को प्रभावित करने का माध्यम है । यानि मनोविज्ञान समझने पर
जोर देता है और मीडिया समझाने पर । समझाने का काम मीडिया खास तरह से करता है ।
मीडिया का संचालनकर्ता कौन है, वह किस समाज के सच की
रचना कर रहा है, कौन-से सच की रचना कर रहा है, इन प्रश्नों से जूझना मीडिया के मनोवैज्ञानिक पहलुओं के जवाब तलाशने
जैसा है । हर मीडिया संस्थान सच दिखाने का दावा करते दिखाई पड़ते हैं, तो फिर एक ही खबरों के अलग-अलग माध्यमों पर विभिन्न संस्करण क्यों
उपलब्ध हैं ? अब मीडिया उपयोगकर्ता कौन सा सच
ग्रहण करे और कौन सा छोड़ दे, ये मीडिया और
मनोविज्ञान के आपसी संबंधों की रूपरेखा है ।
संचार
के विकास का रिश्ता उसके इस्तेमाल करने वाले सामाजिक वर्ग से जुड़ा है । इतिहास
में संचार के विकास पर नजर डाले तो यह पाते हैं कि उन संचार तकनीकों को ज्यादा
जल्दी स्वीकारोक्ति मिल गई जिन्हें समाज के नेतृत्वकारी तबके ने इस्तेमाल किया
चाहे वो हिटलर हो या मुसोलिनी । जर्मनी के प्रख्यात समाजशास्त्री हर्बर्ट मारकोज़े
का कहना है कि संचार मीडिया के प्रचार के परिणाम स्वरूप सामने आने वाला उपभोग, मनुष्य में एक द्वितीय प्रवृत्ति उत्पन्न करता है और उसे पहले से अधिक, समाज में प्रचलित हित साधने के वातावरण पर निर्भर कर देता है । मीडिया आज मानव के स्वभाव को भी परिवर्तित कर रहा है, असंतुष्टि का भाव पैदा कर रहा है । बाजार व मीडिया मनोविज्ञान के सहारे
विकल्पों का बाजार भी रच रहा है जो हमें अनिश्चितता के गर्त में धकेल रहा है । यह
भी मीडिया का एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव ही है । आत्मविश्वास को सृजत करने के लिए लोग
मीडिया पर निर्भर हो गए हैं और मीडिया साक्ष्य देने का एक सशक्त माध्यम बन गया है
। मीडिया ने समाज को विखंडित कर व्यक्ति में तब्दील कर रहा है जिसका सबसे बड़ा
उदाहरण किसी बड़े सामाजिक जन आंदोलन के अभाव के रूप में नजर आता है । आज मीडिया का अध्ययन अन्य विषयों जैसे समाजशास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान इत्यादि से जोड़कर किया जा रहा है ।
मनोविज्ञान
दृष्टिकोण से मीडिया शोध का महत्व और उद्देश्य-
मीडिया
शोध अपने आरंभिक काल से रही मनोविज्ञान से प्रभावित रहा है । इसी तरह कई प्रकार के
मनोवैज्ञानिक शोधों के लिए मीडिया की मदद ली जाती रही है , अर्थात् दोनों विधाओं को अनिवार्य रूप से एक-दूसरे की जरूरत कभी-न-कभी
रही ही है और दोनों ने विभिन्न शोध परणामों के जरिये एक-दूसरे को प्रभावित करने के
साथ-साथ नए-नए सिद्धांतों के निर्माण में योगदान दिया है ।
§ जीवनशैली
पर मीडिया के मनोवैज्ञानिक प्रभावों के अध्ययन में सहायक-
§ उपभोक्ता
व्यवहार, ब्रांड पोजीशनिंग, फैशन, खान-पान, रहन-सहन की आदतों तथा अन्य
दैनिक क्रियाकलापों पर पर जनमाध्यमों के मनोवैज्ञानिक प्रभाव का विश्लेषण किया
जाता है ।
§ राजनीतिक
संचार, जनमत निर्माण व मतदाता व्यवहार के संदर्भ में मीडिया के मनोवैज्ञानिक
प्रभावों का अध्ययन
§ सरकारी
तथा गैर-सरकारी योजनाओं की सफलता का मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन
§ सूचना
तथा तकनीक के समाज द्वारा ग्रहण करने की क्षमता का अध्ययन
§ मीडिया
द्वारा निर्मित छवियों का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन
§ पाठक, दर्शक, मीडिया उपभोक्ता की अभिवृत्तियों
में हुए परिवर्तनों पर हुए शोध में सहायक
§ मीडिया
समाज को और समाज मीडिया को किस प्रकार बदल रहा है, क्यों बदल रहा है, इत्यादि प्रश्नों के
उत्तर ढूंढ़ने में सहायक ।
मनोविज्ञान
से संबंधित मीडिया शोधों में सहायक संचार मॉडल और संचार सिद्धांत-
संचार
और मीडिया के समाज पर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से पड़ने वाले प्रभावों को कई संचार
माध्यमों और संचार मॉडलों के माध्यम से समझा जा सकता है जिनमें से प्रमुख
निम्नलिखित हैं-
Ø बुलेट/हाइपोडरमिक नीडल थ्योरी
Ø टू-स्टेप
फ्लो थ्योरी
Ø मल्टी-स्टेप
फ्लो थ्योरी
Ø एजेंडा
सेटिंग का सिद्धांत
Ø उपयोग
एवं परितुष्टि का सिद्धांत
Ø अरस्तू
का मॉडल
Ø ऑसगुड-श्रैम
का संचार मॉडल
Ø सेलेक्टिव
एक्सपोजर
Ø सेलेक्टिव
एटेंशन
Ø सेलेक्टिव
परसेप्शन
Ø सेलेक्टिव
रिटेंशन
मनोविज्ञान
को केन्द्र में रखकर किए गए मीडिया शोधों में संचार के सिद्धांतों और मॉडलों का
प्रयोग –
संचार
और मीडिया के द्वारा मनुष्य की अभिवृत्तियां बदली जा सकती हैं, ऐसी परिकल्पना के आधार पर कई शोध किए गए । ऐसे शोध इस अवधारणा पर
आधारित थे कि अभिवृत्तियां सीखी जाती हैं तथा विभिन्न प्रक्रियाओं, प्रेरणा वगैरह के जरिये इन्हें
बदला जा सकता है । कार्ल हॉवलैंड (Carl Hovland) नामक मनोवैज्ञानिक द्वारा
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ‘अमेरिकी सैनिकों’ की अभिवृत्ति पर किया गया शोध उल्लेखनीय है । यह शोध अमेरिकी सेना के
सूचना एवं शिक्षा विभाग ने करवाया था । इस शोध का उद्देश्य उन फिल्मों तथा जनसंचार
सामग्रियों के प्रभाव का पता लगाना था, जो अमेरिकी
सैनिकों को प्रेरित करने हेतु दिखाई जाती थीं । इस शोध की रिपोर्ट 1949 में ‘एक्सपेरिमेन्ट्स ऑन मास कम्यूनिकेशन’ नामक
पुस्तक में प्रकाशित की गई ।
प्रथम चरण में चार फिल्मों के प्रभाव का अध्ययन किया गया । ये चारों
फिल्में ‘Why We Fight?’ नामक श्रृंखला के तहत
बनाई गई थीं । इनका उद्देश्य अमेरिकी सैनिकों को देश-विदेश के घटनाक्रम एवं
परिस्थितियों के संबंध में प्रशिक्षित करते हुए युद्ध के लिए प्रेरित करना था ।
इनमें एक फिल्म थी- बैटल ऑफ ब्रिटेन । यह अमेरिका तथा ब्रिटेन के घनिष्ठ रिश्तों को महिमामंडित करते हुए
ब्रिटेन के युद्ध के बारे में तथ्यात्मक जानकारी देती थी । शोध में इस फिल्म के
प्रभाव को तीन रूपों में पता लगाने का प्रयास किया गया—
§ इस फिल्म से तथ्यों की जानकारी कितनी मिली ?
§ ब्रिटेन के युद्ध के संबंध में क्या धारणा बनी ?
§ सैनिक की भूमिका सुधारने तथा युद्ध की इच्छा कितनी जगी ?
शोध
के दौरान सैनिकों के एक समूह को फिल्म नहीं दिखाई गई । एक सप्ताह बाद दोनों ही
समूहों के एक प्रश्नावली देकर युद्ध-संबंधी सामान्य प्रश्नों के उत्तर मांगे गए ।
2100 सैनिकों के सर्वेक्षण के आधार पर पता चला कि फिल्म के कारण उनका तथ्यात्मक
ज्ञान तो बढ़ा, लेकिन दुश्मन के प्रति आक्रोश की
मात्रा में वृद्धि नहीं हुई । उनमें युद्ध की कोई आकांक्षा भी बलवती नहीं हुई । इस
तरह फिल्म अपने मूल उद्देश्य में असफल मानी गई । इस सीरिज के अन्य फिल्मों का भी
ऐसा ही नतीजा निकला ।
निष्कर्ष-
इस अध्ययन से पता चला किसी एक जनसंचार संदेश के जरिये लोगों की अभिवृत्ति नहीं
बदली जा सकती ।
मनोविज्ञान
से संबंधित मीडिया व संचार शोधों में प्रयोग में लाए गए संचार सिद्धांत और संचार
मॉडल -
संचार
व मीडिया के मनोवैज्ञानिक प्रभावों का उल्लेख सर्वप्रथम 1922 में वाल्टर लिपमैन द्वारा उनकी पुस्तक पब्लिक ओपिनियन में किया गया जिसमें वो
लिखते हैं कि हम जो विश्व देखते हैं, वह वास्तविक
विश्व नहीं होता, बल्कि हम अपने मस्तिष्क में मौजूद
उसकी तस्वीर देखते हैं । यह तस्वीर वह नहीं होती जो हमने स्वयं महसूस की है, बल्कि इस तस्वीर का निर्माण मास मीडिया द्वारा किया जाता है । इस तरह लिपमैन ने मास मीडिया की ताकत का एहसास
कराया ।
Ø वन-स्टेप
फ्लो/बुलेट थ्योरी द्वारा मनोवैज्ञानिक प्रभावों का आकलन-
इस
सिद्धांत के अनुसार जनसंचार माध्यम इतने ज्या शक्तिशाली व प्रभावी होते हैं कि वे
लोगों के विचारों को अपनी इच्छानुसार बदल सकते हैं, यहां तक कि मतदान संबंधी निर्णयों को भी प्रभावित कर सकते हैं । मीडिया
के उपयोगकर्ताओं के मनोविज्ञान के संदर्भ में इसे समझा जा सकता है ।
Ø टू-स्टेप
फ्लो थ्योरी में मनोविज्ञान और संचार द्वारा अभिवृत्ति में परिवर्तन की अवधारणा-
इसमें
संदेश व जनसंचार माध्यमों के प्रत्यक्ष प्रभाव के बजाय मानवीय कारकों पर जोर दिया
गया है । इस सिद्धांत के के अनुसार विचारों एवं सूचनाओं का प्रसार दो चरणों में
होता है । पहला है मास मीडिया से ओपिनियन लीडर तक, दूसरा है ओपिनियन लीडर से व्यापक जनता तक । यहां ओपिनियन लीडर
अपने-अपने विषय और क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं । वे मीडिया तथा जनता के बीच एक
मध्यस्थ तथा व्याख्याकार की भूमिका निभाते हुए जनता के सूचना ग्रहण करने के
मनोविज्ञान को प्रभावित करते हैं । लेजर्सफेल्ड और इल्हु काट्ज ने 1940 में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में 2400 मतदाताओं को 600-600
के चार समूहों में विभाजित कर उन पर मतदान संबंधी निर्णयों पर जनसंचार माध्यमों के
प्रभाव का अध्ययन किया और बताया कि जनसंचार से अधिक व्यक्तिगत संपर्कों का असर ने
मतदाताओं के निर्णय के प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
Ø मल्टी-स्टेप
फ्लो थ्योरी द्वारा सूचनाओं के संप्रेषण तथा ग्रहण करने के मनोविज्ञान का परीक्षण-
इवर्ट
रोजर्स द्वारा अपनी पुस्तक डिफ्यूज़न ऑफ इनोवेशन में मल्टी-स्टेप फ्लो के सिद्धांत के
अनुसार यह पता लगाने की कोशिश की गई है कि किसी भी तरह के नवाचार, नए विचार, नए व्यवहार या उद्देश्य को
समाज में व्यापक तौर पर लोग किस प्रकार ग्रहण करते हैं । उन्होंने अपने शोध के
जरिये नवाचार को ग्रहण करने वालों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर उन्हें पांच
श्रेणियों में विभाजित किया जो निम्नलिखित हैं-
1. नवाचारी लोग- 2.5 प्रतिशत (नया करने की आकांक्षा वाले, शिक्षित, विविध सूचना स्त्रोत संपन्न, जोखिम उठाने की क्षमता वाले लोग ।
2. शीघ्र स्वीकारकर्ता- 13.5 प्रतिशत (सामाजिक नेता, लोकप्रिय, शिक्षित लोग )
3. शीघ्र स्वीकार समूह- 34 प्रतिशत (विभिन्न अनौपचारिक सामाजिक संबंध रखने
वाले लोग )
4. विलंब स्वीकार समूह- 34 प्रतिशत (संदेहवादी, परंपरागत, निम्न सामाजिक-आर्थिक श्रेणी
वाले लोग )
5. फिसड्डी- 16 प्रतिशत- (कर्ज की आशंका से भयभीत लोग, जिनकी सूचना के मुख्य स्त्रोत मात्र
उनके पड़ोसी और मित्र हों )
Ø एजेंडा
सेटिंग का सिद्धांत का मनोवैज्ञानिक प्रभाव-
इस
सिद्धांत के अनुसार मीडिया द्वारा मुद्दों का निर्माण किया जाता है । वह लोगों को
बताता है कि आज कौन-सा मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है तथा कौन-से मुद्दे गौण हैं । मैक्सवेल ई. मैकॉम्ब और डोनाल्ड शॉ ने 1972 में इस सिद्धांत को
1968 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में किए गए अपने शोध के आधार पर पेश किया ।
नॉर्थ कैरोलिना के चैपल हिल नामक स्थान पर 100 मतदाताओं पांच अखबारों, दो पत्रिआओं तथा दो टीवी नेटवर्क के समाचारों का अंतर्वस्तु-विश्लेषण
किया । इसमें मीडिया एजेंडा तथा पब्लिक एजेंडा में जबरदस्त सह-संबंध पाया गया ।
1980 के अमेरिकी चुनाव के दौरान इस सिद्धांत का सबसे प्रभावी स्वरूप
उभरकर सामने आया जब ईरान बंधकों के द्वितीयक मुद्दे को मीडिया ने प्राथमिक मुद्दे
में तब्दील कर दिया । इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रपति के प्रबल दावेदार माने जा रहे
जिमी कार्टर को चुनाव हारना पड़ गया । मीडिया
ने अपने उपयोगकर्ताओं के मतदान संबंधी मनोविज्ञान को पूरी तरह से बदल दिया ।
मीडिया ने लोगों को यह नहीं बताया कि क्या सोचना है, बल्कि यह बताया कि किस बारे में सोचना है । 2014 के भारतीय आम चुनाव में भी मीडिया द्वारा कई सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मोर्चे पर सत्ताधारी
पार्टी कांग्रेस की विफलताओं को प्रमुखता से उजागर किया गया और भाजपा को एकमात्र
सशक्त विकल्प के रूप में पेश किया गया । इसका फायदा भाजपा को पूर्ण बहुमत के रूप
में प्राप्त भी हुआ ।
Ø उपयोग
एवं परितुष्टि का सिद्धांत-
इल्हु
काट्ज ने मीडिया लोगों के साथ क्या करता है, इस
सवाल को इस तरह से बदल कर देखा कि लोग मीडिया के साथ क्या करते हैं ? उन्होंने 1949 में किए गए बर्नार्ड
बेरेलसन के एक शोध का उल्लेख किया जब 15 दिनों तक
हॉकरों की हड़ताल के कारण लोगों को अखबार से वंचित होना पड़ा था । बेरेलसन
ने इस बात पर शोध किया कि अखबार न पढ़ने के कारण पाठकों ने क्या खोया । अधिकांश
पाठकों ने कहा कि उन्होंने बहुत कुछ खोया । इसके निष्कर्ष के निम्नलिखित बिंदु रहे –
§ अखबार न आने से पहले बेचैनी महसूस होती थी लेकिन अब राहत महसूस हो रही
है ।
§ घटनाओं के अपडेट, सम-सामयिक ज्ञान से
वंचित रह गए ।
§ सूचनाओं से संतुष्टि मिलती थी ।
§ तनाव से मुक्ति मिली ।
इसी
के आधार इल्हु काट्ज ने उपयोग एवं परितुष्टि का सिद्धांत ( Uses
and Gratifications Theory) प्रस्तुत की ।
Ø अरस्तू का मॉडल और उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव-
करीब 2300 साल पहले ग्रीस के दार्शनिक अरस्तू ने अपनी किताब ”रेटॉरिक” में संचार की प्रक्रिया के बारे
में बताया है । रेटॉरिक का हिन्दी में अर्थ होता है भाषण देने की कला । अरस्तू ने
संचार की प्रक्रिया को बताते हुए पॉंच प्रमुख तत्वों की व्याख्या की है। संचार
प्रेषक (भेजने वाला), संदेश (भाषण), प्राप्तकर्त्ता, प्रभाव और विभिन्न अवसर
। अरस्तू के अनुसार संचार का मुख्य उद्देष्य है श्रोता पर प्रभाव उत्पन्न करना ।
इसके लिए प्रेषक विभिन्न अवसरों के अनुसार अपने संदेश बनाता है और उन्हें श्रोता
तक पहुंचाता है जिससे कि उनपर प्रभाव डाला जा सके । यह प्राप्तकर्ता के मनोविज्ञान
को भी प्रभावित करता है । अलग-अलग क्षेत्र, परिवेश, स्थिति के अनुरूप राजनेताओं के भाषण, किसी
शिक्षक का वक्तव्य इत्यादि के प्रभाव के द्वारा इसे समझा जा सकता है ।
Ø ऑसगुड-श्रैम
का संचार मॉडल-
चार्ल्स
ई. ऑसगुड मनोभाषाविज्ञानी थे । 1954 में मानव संचार के अध्ययन हेतु
मनोभाषाविज्ञान की प्रक्रिया के उपज के रूप में थ्योरी
ऑफ मीनिंग प्रस्तुत की । इसे विल्बर श्रैम ने एक
सर्कुलर मॉडल में बदल दिया । इसके अनुसार सेंडिंग और रिसीविंग, दोनों कार्य अलग-अलग नहीं है, बल्कि एक
ही समय में एक व्यक्ति दोनों काम कर रहा होता है । इस मॉडल की संचार प्रक्रिया में
उपयोग किए गए चैनल के बजाय इसमें शामिल मुख्य तत्वों- संचारकर्ता एवं प्राप्तकर्ता
के व्यवहार पर ज्यादा
जोर दिया गया है । एक शिक्षक और एक छात्र अपने संवाद के बीच इनकोडिंग तथा डिकोडिंग
का कार्य एकसाथ कर रहे होते हैं ।
Ø सेलेक्टिव
एक्सपोजर-
इस
प्रक्रिया में व्यक्ति खुद को हर प्रकार के संचार-माध्यम व संप्रेषण के लिए खुला
नहीं छोड़ता, बल्कि खुद तक उन्हीं चीजों
को पहुंचने देता है, जो उसके अनुरूप चयनित हों, जिसमें उसकी दिलचस्पी हो तथा जिसके प्रति उसकी वर्तमान अभिवृत्तियों के
साथ सहमति हो । शेष को वह खारिज कर देता है या खुद तक पहुंचने ही नहीं देता ।
उदाहरण के लिए बच्चों के कार्टून चैनल के प्रति लगाव से समझ सकते हैं । उनके लिए
कार्टून चैनल ही सब कुछ होता है, शेष सारे चैनल उनके
लिए बेकार बन जाते हैं ।
Ø सेलेक्टिव
एटेंशन-
यह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है, जिसमें
कोई व्यक्ति किसी संदेश के सिर्फ उन्हीं हिस्सों की ओर ध्यान आकृष्ट करता है, जो उसकी अभिवृत्तियों, विश्वासों एवं
व्यवहार से मेल खाती हैं । इनके विपरित संदेशों को वह नज़रअंदाज कर देता है । जैसे
किसी एक न्यूज बुलेटिन से कोई दर्शक सिर्फ अपनी पसंद से जुड़े क्षेत्र की खबरों
(खेल, राजनीति) के किसी खास हिस्से को देख शेष सभी
खबरों को अनदेखा कर देता है ।
Ø सेलेक्टिव
परसेप्शन-
दैनिक
जीवन में जिन भौतिक, वैचारिक चीजों से
हमारा सामना होता है, उनका अवबोधन या प्रत्यक्षीकरण
हम किस प्रकार करते हैं, यह हमारी जरूरतों, आकांक्षाओं, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक
कारकों, अभिरुचियों तथा अभिवृत्तियों पर निर्भर करता
है । अर्थात् संचारकर्ता ने जिन लक्ष्यों के तहत वांछित प्रभावों की उम्मीद के साथ
जिस प्रकार का संदेश भेजा हो, कोई आवश्यक नहीं कि हम
उसे उसी रूप में ग्रहण करते हैं या उसका संचार का वही प्रभाव उत्पन्न हो ।
Ø सेलेक्टिव
रीटेंशन-
इस
प्रक्रिया में मनुष्य विभिन्न प्रकार के जनसंचार से प्राप्त संदेशों में से कुछ ही
चीजों को याद रखता है, जो उसकी अभिरुचियों, जरूरतों और विचारों के अनुकूल हों, शेष
सभी चीजों को भुला देता है ।
मनोविज्ञान
और मीडिया शोध के कुछ प्रमुख उदाहरण-
v संगीत
बढ़ाए जाम का स्वाद-
1949
में अमेरिका में रिसर्च ब्यूरो स्थापित किया गया जो टेलीविजन रेटिंग का काम करता
था । उसी दौरान ब्रिटेन के मनोचिकित्सकों ने 250 छात्रों पर रेडियो संगीत के
प्रभाव पर शोध किया और पाया कि संगीत की धुन से शराब के जाम का सीधा रिश्ता होता
है । जिन लोगों ने रेडियो की धुन के साथ शराब पिया, उनमें से 60 प्रतिशत लोगों ने जाम का स्वाद बदला हुआ महसूस किया ।
v टेलीविजन
हिंसा पर शोध-
अमेरिका
में समाचारों के संदर्भ में कल्चर एंड
आइडियाजः स्पेशल रिपोर्ट- 1994 शीर्षक से एक शोध हुआ
जिसमें पता चला कि 92 प्रतिशत अमेरिकन यह सोचते हैं कि उनके देश में हिंसा बढ़ाने
में टेलीविजन का योगदान है । जबकि 65 प्रतिशत यह सोचते हैं कि टेलीविजन मनोरंजन
कार्यक्रमों का अमेरिकी जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है ।
v सोशल
मीडिया का मनोवैज्ञानिक प्रभाव-
सोशल
मीडिया के बहुत ज्यादा उपयोग करने के मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ते हैं । यह प्रभाव
सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हैं । बच्चों पर सोशल मीडिया का बहुत ज्यादा उपयोग
करने का असर क्या पड़ रहा है, इस पर अनेक
अध्ययन हो रहे हैं । हाल ही में हुए एक अध्ययन में निष्कर्ष निकला है कि जो बच्चे सोशल मीडिया का उपयोग बहुत ज्यादा करते
है, उनके मन में जीवन के प्रति असंतुष्टि का भाव
ज्यादा रहता है। सोशल मीडिया पर लोगों को देख-देख कर बच्चों की आदत हो जाती है कि
वे अपने अभिभावकों से अवांछित वस्तु की मांग भी करने लगते हैं ।
क्या
था शोध में –
ब्रिटेन
के इंस्टीट्यूट ऑफ लेबर इकॉनामिक्स द्वारा ‘सोशल मीडिया यूज एंड चिल्ड्रन्स वेलबीइंग’ अध्ययन के दौरान 10 से 15 साल की उम्र के 4000 बच्चों से
बातचीत की गई । इस अध्ययन में बच्चों से उनके जीवन के तमाम पहलुओं पर चर्चा की गई
। यह पूछा गया कि वे अपने घर-परिवार, स्कूल, दोस्त और जीवन से कितने संतुष्ट हैं । बच्चे सोशल मीडिया का कितना
उपयोग करते हैं, इसका अध्ययन भी एक एप की मदद से
किया गया ।
जो
निष्कर्ष निकला, वह यह था कि बच्चे सोशल मीडिया पर
जितना समय बिताते हैं, वे उसी अनुपात में अपने
घर-परिवार, स्कूल और जीवन के प्रति असंतुष्ट हैं ।
जो बच्चे सोशल मीडिया पर कम समय खपाते हैं, वे जीवन
के दूसरे पहलुओं के प्रति ज्यादा संतुष्ट नजर आए । सोशल मीडिया पर कम समय व्यतीत
करने वालों को अपना स्कूल और माता-पिता ज्यादा पसंद थे । जो बच्चे सोशल मीडिया पर
ही ज्यादा समय लगे रहते थे, उन्हें लगता था कि उनका
जीवन ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं है ।
इस
अध्ययन में एक और दिलचस्प बात सामने आई, वह
यह कि सोशल मीडिया का उपयोग करने का असर लड़कों की तुलना में लड़कियों पर ज्यादा है
। इसका कारण शायद यह है कि लड़कियां ज्यादा भावुक होती हैं । अध्ययन में यह भी पता
चला है कि साइबर बुलींग छात्राओं के साथ अधिक मात्रा में होता है ।
निष्कर्ष-
संचार, मीडिया और मनोविज्ञान के बीच गहरा रिश्ता है । तीनों एक-दूसरे से जुड़े
हैं और एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं । बेरलसन (Bearlson) के अनुसार कुछ खास प्रकार के मुद्दों पर, कुछ विशेष स्थितियों में, कुछ लोगों तक, किसी संचार का, कुछ खास किस्म का प्रभाव
पड़ता है । मीडिया के संचार का असर आज व्यक्ति के, समाज
के मनोविज्ञान पर पड़ रहा है । मीडिया का समाज के, व्यक्ति
के मनोविज्ञान पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, यह बहस का
मुद्दा है । मीडिया के मनोवैज्ञानिक प्रभावों को केन्द्र में रखकर आज पूरे विश्व
में शोध हो रहे हैं । नोम चोमस्की द्वारा दिए गए ‘मैनुफैक्चरिंग
कंसेन्ट’ (सहमति गढ़ना) के अवधारणा के इर्द-गिर्द आज
जनसंपर्क शोध राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है । भारत में भी लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों में जनसंपर्क ऐजेंसियों
के बढ़ते हस्तक्षेप से इसे समझा जा सकता है । संचारशास्त्री लासवेल के अनुसार – “व्यापक अर्थों में प्रचार विभिन्न प्रस्तुतियों के जरिये मानव व्यवहार
को प्रभावित करने की तकनीक है । ये प्रस्तुतियां उच्चारित, लिखित, चित्रमय या संगीतमय हो सकती हैं ।” आधुनिक विज्ञापन और बाजार शोध में उपभोक्ता मनोविज्ञान को जानने-समझने, परिवर्तित करने में उनके इस निष्कर्ष का व्यापक प्रयोग भी हो रहा है ।
इंटरनेट के प्रसार ने दुनिया भर में कम्प्यूटर, लैपटॉप, स्मार्टफोन तथा मोबाइल के जरिये जनसंचार की प्रक्रिया से जुड़े मीडिया
उपभोक्ताओं के नए-नए समूहों को जन्म दिया है । इनके लिए मीडिया ऐसी सामग्री
प्रस्तुत करने की कोशिश करता है जो उसके पाठक, श्रोता
तथा दर्शकों को पसंद आए । इस आवश्यकता ने भी आज मीडिया घरानों को संचार तथा
मनोविज्ञान के अंतर्संबंधों को तलाशने पर मजबूर किया है । श्रोता अनुसंधानों (Audience
Research) अंतर्गत मौजूदा श्रोताओं, लक्षित श्रोताओं की सांस्कृतिक,सामाजिक, आर्थिक स्थिति के साथ-साथ उनके मनोवैज्ञानिक बनावट पर भी गहनता से
ध्यान दिया जा रहा है । जनमाध्यमों के श्रोताओं की मनोवृत्ति, अभिरुचि तथा व्यवहार का अध्ययन करने के लिए मीडिया प्रभाव, फीडबैक तथा मूल्यांकन शोध का प्रसार बढ़ता ही जा रहा है । अतः यह कहा
जा सकता है कि मानवीय व्यवहार और जीवनशैली को बदलने में, नए-नए मीडिया उपभोक्ताओं और जनमत के जोड़ने-तोड़ने में, सूचनाओं के वितरण-ग्रहण-असंतुलन के जानने-समझने में तथा संचार के
विकासात्मक स्वरूपों का अध्ययन करने में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से किए जा रहे
मीडिया शोधों की महत्वपूर्ण भूमिका है ।
संदर्भ
सूची-
Ø जनसंचार : सिद्धांत और अनुप्रयोग, विष्णु राजगढ़िया, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली
Ø संचार
और मीडिया शोध, विनीता गुप्ता, वाणी प्रकाशन, दिल्ली
Ø सम्प्रेषण
और सिद्धांत- डॉ. श्रीकांत सिंह
वीडियो
व्याख्यान, डॉ. आनंद प्रकाश, जनसंचार विभाग, म.गां.अं.हिं.वि.वि.
Øhttp://hindi.webdunia.com/my-blog/social-media-117010700075_1.html
Øhttp://www.newswriters.in/2015/06/07/model-of-communication/
बहुत ही ज्ञानस्पद लेख है मीडिया के मनोविज्ञान पर! 👍
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