Tuesday 7 November 2017

स्वतंत्रता आंदोलन में ‘स्वराज्य’ समाचारपत्र की भूमिका .

 

स्वतंत्रता आंदोलन में ‘स्वराज्य’ समाचारपत्र की भूमिका

 

भारतीय पत्रकारिता का उदय राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि में सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए ही हुआ था। व्यावसायिक उद्देश्यों से दूर त्याग,तपस्या और बलिदान ने दिशाहीन समाज को दिशा-निर्देशित किया तथा अतीत के गौरव से परिचित कराया। सदियों की गुलामी से जर्जर हुए भारतीय समाज में नया प्राण फूंकने के लिए साहस भरी पहल पत्र-पत्रिकाओं ने की। ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालक भारत में प्रेस को दबाकर रखना चाहते थे ताकि कंपनी के व्यापार और प्रशासन की कमजोरियां प्रकाश में न आ सकें। उस दौरान जिन भी अखबारों ने अँग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई भी खबर या आलेख छपाउसे उसकी कीमत चुकानी पड़ी। अखबारों को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। उसकी प्रतियाँ जलवाई जाती थींउसके प्रकाशकोंसंपादकोंलेखकों को दंड दिया जाता था। उन पर भारी-भरकम जुर्माना लगाया जाता थाताकि वो दुबारा फिर उठने की हिम्मत न जुटा पाएँ। लेकिन आजादी की लहर जिस तरह पूरे देश में फैल रही थीअखबार भी अत्याचारों को सहकर और मुखर हो रहे थे। यही वजह थी कि बंगाल विभाजन के उपरांत हिन्दी पत्रों की आवाज और बुलंद हो गई। लोकमान्य तिलक ने 'केसरीका संपादन किया और लाला लाजपत राय ने पंजाब से 'वंदे मातरमपत्र निकाला। इन पत्रों ने युवाओं को आजादी की लड़ाई में अधिक-से-अधिक सहयोग देने का आह्वान किया। इन पत्रों ने आजादी पाने का एक जज्बा पैदा कर दिया। इस दौर का प्रमुख पत्र था “स्वराज्य” जो आज़ादी की लड़ाई में अपना विशेष योगदान देकर इतिहास में अमर हो गया।

 

 

स्वराज्य’ की शुरुआत

गदर पार्टी के प्रसिद्ध क्रांतिकारी पं. परमानन्द के अनुसार ‘स्वराज्य’ के प्रकाशक संपादक शांतिनारायण भटनागर पहले अंग्रेज सरकार की चाकरी में थे। एक दिन उन्हें चिंताग्रस्त देखकर उनकी पत्नी ने पूछा – “नौकरी तो छोड़ दी,फिर भी चिंता नहीं छोड़ सके,कारण क्या है?” भटनागर जी बोले “सोचा था एक साप्ताहिक पत्र निकालूंगा परन्तु अब देखता हूं बिना धन के वह शुरु हो तो कैसे?”

अख़बार निकाल कर क्या करेंगे?” पत्नी के पूछने पर उन्होंने कहा “बस स्वराज्य का प्रचार करुंगा। देश जगाउंगा। ऐसे युवक तैयार करुंगा जो देश को आज़ादी प्राप्त कराने के लिए जिए-मरें। इसलिए नौकरी त्यागी है। शेष जीवन इसी ध्येय में खपाने का संकल्प है। जो भी मुसीबत आए झेलूंगा।” इन बातों को सुन पत्नी अंदर गई और अपने सभी स्वर्णाभूषण उन्होंने पति के सामने प्रस्तुत कर दिए तथा उन्हें बेचकर अपने कार्य को प्रारंभ करने का मंत्र बतलाया। इन्हीं आभूषणों को बेचकर साप्ताहिक अख़बार स्वराज्य निकाला गया।

स्वराज्य’ का दमन

स्वराज्य’ की क्रांतिकारी पत्रकारिता देख इसके नौ संपादकों को अंग्रेज सरकार के क्रूर दमन का शिकार होना पड़ा। पंजाब के फील्ड मार्शल लड्ढ़ाराम भी इस पत्र के संपादकों में एक रहे हैं। स्वराज्य के पूर्व संपादक को जब अण्डमान भेजा गया तो लड्ढ़ाराम पंजाब से इलाहाबाद आए,स्वराज्य का संपादन किया। उनके तीन संपादकीय लेखों के कारण उनकों दस साल साल के हिसाब से तीस साल काले पानी की सजा दी गई। वे सजा काटकर सकुशल लौट भी आए। वास्तव में ‘स्वराज्य’ साप्ताहिक देशभक्ति की कसौटी था। राष्ट्रीय दृष्टि से यह पत्र निराला था जिसके संपादक होने का अर्थ ही था काले पानी की सज़ा भुगतना। स्वराज्य के संपादक-पद पर नियुक्ति हेतु विज्ञापित निम्नलिखित पंक्तियां अविस्मरणीय हो चुकी हैं  :

चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन दो सूखी रोटियां,एक ग्लास ठंडा पानी और हर संपादकीय के लिए दस साल जेल।

स्वराज्य ने अपनी सामग्री द्वारा राष्ट्रीय अपमान के अवसान और स्वतंत्रता की सुबह की कामना प्रकट की। स्वराज्य समाचारपत्र का पहला अंक  नवंबर 1907 में निकला जिसका लक्ष्य पंजाब केसरी लाला लाजपत राय और सरदार भगत सिंह के चाचा  सरदार अजीत सिंह का अभिनंदन करना था।

 

स्वतंत्रता आंदोलन और ‘स्वराज्य

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का यदि सही ढ़ंग से आकलन किया जाए स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि तैयार करने में पत्र-पत्रिकताओं की भूमिका सर्वोपरि रही है। स्वतंत्रता आदोलन के लिए राजनेताओं को जितना संघर्ष करना पड़ा,उससे तनिक भी कम संघर्ष पत्रों एवं पत्रकारों को नहीं करना पड़ा। आज़ादी की इसी लड़ाई में इलाहाबाद से सन् 1907 ई. में उर्दू भाषा का ‘स्वराज्य’ नामक समाचारपत्र का प्रकाशन प्रारंभ हुआ जिसके संस्थापक शांति नारायण भटनागर थे। ढाई वर्षों में इस साप्ताहिक पत्र के 75 अंक निकले। आपत्तिजनक सामग्रियों के प्रकाशन के अपराध में शांतिनारायण भटनागर,रामदास,होतीलाल वर्मा,बाबू राम हरि,मुंशी राम सेवक,नन्दलाल चोपड़ा,लड्ढा राम कपूर और पं.अमीरचंद बम्बवाल को न्यायालय द्वारा दण्डित किया गया। पत्र की उग्रता का परिचय इसी तथ्य से प्राप्त होता है  कि रौलेट कमीशन के सर रौलेट,सर बासिल स्कॉट,सी.वी.कुमारस्वामी,बर्नेलोवेट तथा पी.सी.मित्तर ने इस पत्र का उल्लेख कमीशन की रिपोर्ट में किया। सभी अंग्रेज शासक के हमदर्दों को यह मानना पड़ा कि पत्र का मुंह तभी बंद हो सका जब 1910 में भारतीय प्रेस अधिनियम लागू हुआ

 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पत्र-पत्रिकाओं के संपादक,प्रकाशक एवं मुद्रकों को न तो किसी का सम्बल था और न ही संरक्षण। संसाधनों का अभाव तो था ही साथ ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कोई संवैधानिक अवधारणा भी नहीं थी। इन सबके बावजूद पत्रकारिता ‘व्यवसाय’ नहीं ‘मिशन’ के रुप में अपनाई गई। लक्ष्य सिर्फ एक था,देश को गुलामी की जंजीर से आज़ाद करना। ‘स्वराज्य’ समाचारपत्र भी इसी मिशन को केन्द्र में रखकर अपनी लेखनी के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत की क्रूर नीतियों का विरोध किया और जनता को जागरुक किया। ‘स्वराज्य’ समाचारपत्र का नाम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय पत्रकारिता में इसलिए भी स्वर्णाक्षरों में दर्ज हुआ क्योंकि अपने छोटे से जीवनकाल में(1907-1910) के दौरान ही इसने लोगों के मन में अपनी अलग पहचान बना ली थी। ब्रिटिश नौकरशाही को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प और पुरस्कार में काला पानी के अतिरिक्त नृशंस यातनाएं सहकर भी इसके पत्रकार-संपादकों के लिखने के जुनून ने इसकी विशेष पहचान स्थापित की। एक के बाद एक जेल भेजे जा रहे संपादकों के बाद भी ‘स्वराज्य’ के पत्रकारों ने स्वाधीनता का सपना देखना नहीं छोड़ा और वे निरंतर इसके लिए संघर्ष करते रहे।

 

संदर्भ सूची

 

पुस्तक-

हिंदी पत्रकारिता का बृहद इतिहास- अर्जुन तिवारी

 

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