Sunday 29 October 2017

एक छात्र होने की कीमत...

इस बार भी दीवाली-छठ जैसे त्योहार पे घर नहीं जा पाया । पिछले 6 सालों से यही हो रहा है । छुट्टी, ट्रेन-टिकट जैसी कई परिस्थितियां इसके लिए ज़िम्मेदार हैं । हालाँकि इतने दिनों में मेरे साथ-साथ घरवाले भी दिमागी तौर पर अभ्यस्त हो चुके होंगे कि इस बार भी मैं नहीं आऊंगा, लेकिन दिल के किसी कोने में एक उम्मीद तो लगी ही रहती होगी । इस उम्मीद के बारे में सोचकर ही थोड़ा दुःख होता है, मन उदास होने लगता है । मुझे पता है कि मेरे पढ़ने और रिज़ल्ट को लेकर मम्मी-पापा को (ख़ास तौर पे मम्मी को) जितनी फ़िक्र नहीं होती उससे कहीं ज़्यादा फ़िक्र ऐसे मौकों पे इस बात की रहती है कि दीवाली पे बच्चे का मुंह मीठा हुआ कि नहीं, छठ का प्रसाद किसी दोस्त ने खिलाया कि नहीं, त्योहार पे नए कपड़े लिए या नहीं , और भी बहुत कुछ । घर-दुआर से अलग जी रहे हम जैसे लोग अब साल के सेमेस्टर ब्रेक का इंतज़ार करते रहते हैं ताकि उन दिनों में घर जाकर जो खालीपन पसर रहा होता है, उसे भर सकें । छुट्टियों के उन दिनों में मम्मी-पापा बहुत खुश रहते हैं और उनका प्यार भी थोक भाव में मिलता है । वापसी में वो मुस्कुराते हुए, आशीर्वाद के साथ हमें विदा करते हैं, शायद इसलिए कि उनके आंसू कहीं हमें कमज़ोर न कर दें । क्योंकि अगर वो छलक पड़े तो हम भी तो बरस पड़ेंगे । सेमेस्टर-दर-सेमेस्टर हम रिज़ल्ट के नम्बरों से, ट्रॉफियों और मेडल से और सर्टिफिकेट जैसी बेजान चीजों से उनके लिए ख़ुशी को खरीदने में लगे रहते हैं, इस उम्मीद में कि शायद त्योहार में न होने की मायूसी इनके ज़रिये मुस्कुराहट में बदल जायेगी । हम एक मोर्चे पर कामयाब तो दिखते हैं लेकिन उसी के दूसरे सिरे पे अधूरापन भी मौजूद नज़र आता है ।  एक अच्छा छात्र, एक अच्छा पत्रकार, एक अच्छा नागरिक बनने की प्रक्रिया का हिस्सा होते हुए एक अच्छा बेटा बने रहने की ये जद्दोजहद इस साल भी बदस्तूर जारी है ।

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