दलित । एक ऐसा शब्द जिससे मेरी जान-पहचान शायद पांचवी या छठी क्लास में हुई होगी । तब इसके बारे में किताबों में पढ़ता था कि "अंबेडकर ने दलितों के शोषण के विरुद्ध बहुत संघर्ष किया है ।" ,"गांधी जी ने दलितों के दमन की खिलाफ़ आवाज़ उठाई।" वगैरह वगैरह...वक़्त गुजरने के साथ खुद के दलित होने का पता चला । थोड़े और समय बाद उन किताबों में 'दलित' शब्द के साथ बार-बार लिखे गए "शोषण","दमन","अत्याचार" और "संघर्ष" जैसे शब्दों पर गौर किया। पर इन शब्दों का असली मतलब धीरे-धीरे समझ में आने लगा जब 'डोम','चमार','दुसाध','मेस्तर','मुसहर' और 'पासी' जैसी दलित जातियों के बारे में लोगों की मानसिकता से पाला पड़ा । "डोम-चमार की तरह झगड़ना" ,"मुसहर की तरह गन्दा रहना", "छोटे लोग-छोटी बुद्धि" जैसे ना जाने कितने जुमले इसी समाज के बनाए हुए हैं जो तब से लेकर आज देश की आज़ादी के 66 साल बाद भी दलितों पर ताने कसने(या उनकी औकात दिखाने) के काम में लाए जा रहे हैं । वक़्त गुज़रने के साथ-साथ हमारा खान-पान,रहन-सहन,पहनना-ओढ़ना,स्टाइल,फैशन सब बदलता गया पर कुछ नहीं बदला तो वो है डोम जाति के लोगों का आज भी सूअर पालना,चमारों का जानवरों के चमड़े उतारना,पासियों का ताड़ी उतारना और कुछ लोगों के दिमाग में "छोटे लोगों" के प्रति जो छोटी सोच का कीड़ा। अगर इनके लिए कुछ बदला है तो वो है गाली देने का मुद्दा । पहले "छुआछूत" के नाम पर गाली मिलती थी और अब 'आरक्षण' के नाम पर मिलती है। शायद दलितों का सबसे बड़ा गुनाह उनका दलित होना ही है। सिर्फ संविधान में जगह देने,कानून बना देने,विशेष मंत्रालय बना देने से इनको समाज में बराबरी का दर्ज़ा नहीं मिलने वाला। क्योंकि जबतक हम अपने चेहरे पे जमी धूल साफ़ नहीं करेंगे तबतक हमें आईना गंदा ही नज़र आएगा ।
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