Thursday, 24 July 2014

खोखली "आस्था"-पूरी 'मनमानी'...।

आज कुछ कांवड़ियों को बाईक के पीछे बैठ तिरंगा लहराते देखा ।
शायद आज़ादी का जश्न मना रहे थे।
ट्रिपल लोडिंग कर खुलेआम ट्रैफिक रुल की धज्जियां उड़ाने की आज़ादी.....सड़क के बीचोंबीच गाड़ियाँ खड़ी कर कानफोडू संगीत पर झूमने की आज़ादी...सार्वजनिक जगहों पर बीड़ी-सिगरेट-गांजा चिलम फूंकने की आज़ादी....।
सावन का महिना शुरू होते ही शिव जी के भक्त(कांवरिये) पूरी आस्था के साथ उनके देवालयों में जल अर्पित करने जाते हैं। पर यह कैसी आस्था है ??
बचपन से कांवरियों के हाथ में रंग-बिरंगे 'कांवर' को देखता आया हूँ..फिर उन हाथों को 'गोल्फ्स्टीक' और 'हॉकीस्टिक' की जरूरत क्यों आ पड़ी ??
लगभग हर डीटीसी बस स्टॉप पर 'कांवड़ सेवा समिति' बनाकर हजारों-लाखों खर्च करने वाले क्या सावन के बाद भी अपनी इस 'सेवा' भावना को जगाए रखेंगे ??
क्या उनके हर पंडालों पर लगे जल बोर्ड के टैंकर सावन बाद भी बाहरी दिल्ली के लोगों को समय पर मुफ़्त पानी मुहैया करा पाएगा ??
इन पंडालो में जो दिनभर पूरी-सब्ज़ी,दही भल्ले,टिक्की,मैंगो फ्रूटी परोसी जा रही है वो हर दिन रैन बसेरों में सो रहे किसी रिक्शे वाले को भी नसीब होगी ??
इन सभी सवालों के जवाब में शायद सिर्फ निराशा ही हासिल हो । क्योंकि "आस्था" और 'पाखंड',"आज़ादी" और 'मनमानी' का बुनियादी फ़र्क इन्हीं सवालों और उनके संभावित जवाबों में साफ़ नज़र आता है ।

Thursday, 17 July 2014

क्या दलित होना ही गुनाह है..?

दलित । एक ऐसा शब्द जिससे मेरी जान-पहचान शायद पांचवी या छठी क्लास में हुई होगी । तब इसके बारे में किताबों में पढ़ता था कि "अंबेडकर ने दलितों के शोषण के विरुद्ध बहुत संघर्ष किया है ।" ,"गांधी जी ने दलितों के दमन की खिलाफ़ आवाज़ उठाई।" वगैरह वगैरह...वक़्त गुजरने के साथ खुद के दलित होने का पता चला । थोड़े और समय बाद उन किताबों में 'दलित' शब्द के साथ बार-बार लिखे गए "शोषण","दमन","अत्याचार" और "संघर्ष" जैसे शब्दों पर गौर किया। पर इन शब्दों का असली मतलब धीरे-धीरे समझ में आने लगा जब 'डोम','चमार','दुसाध','मेस्तर','मुसहर' और 'पासी' जैसी दलित जातियों के बारे में लोगों की मानसिकता से पाला पड़ा । "डोम-चमार की तरह झगड़ना" ,"मुसहर की तरह गन्दा रहना", "छोटे लोग-छोटी बुद्धि" जैसे ना जाने कितने जुमले इसी समाज के बनाए हुए हैं जो तब से लेकर आज देश की आज़ादी के 66 साल बाद भी दलितों पर ताने कसने(या उनकी औकात दिखाने) के काम में लाए जा रहे हैं । वक़्त गुज़रने के साथ-साथ हमारा खान-पान,रहन-सहन,पहनना-ओढ़ना,स्टाइल,फैशन सब बदलता गया पर कुछ नहीं बदला तो वो है डोम जाति के लोगों का आज भी सूअर पालना,चमारों का जानवरों के चमड़े उतारना,पासियों का ताड़ी उतारना और कुछ लोगों के दिमाग में "छोटे लोगों" के प्रति जो छोटी सोच का कीड़ा। अगर इनके लिए कुछ बदला है तो वो है गाली देने का मुद्दा । पहले "छुआछूत" के नाम पर गाली मिलती थी और अब 'आरक्षण' के नाम पर मिलती है। शायद दलितों का सबसे बड़ा गुनाह उनका दलित होना ही है। सिर्फ संविधान में जगह देने,कानून बना देने,विशेष मंत्रालय बना देने से इनको समाज में बराबरी का दर्ज़ा नहीं मिलने वाला। क्योंकि जबतक हम अपने चेहरे पे जमी धूल साफ़ नहीं करेंगे तबतक हमें आईना गंदा ही नज़र आएगा ।

Saturday, 8 March 2014

सवाल सोच का है....

आज अख़बार के गुलाबी हुए पहले पन्ने से महिला दिवस की सूचना मिली वरना वैलेंटाइन डे के बाद ये विशेष गुलाबी रंग अख़बारों में शायद ही कभी दिखता है..
एक ओर महिला अधिकारों,सुरक्षा,आरक्षण जैसे मुद्दों पर सिलेब्रेटीओं,बुद्धिजीवियों के लेखों से अख़बार भरा पड़ा था वहीं दूसरी ओर पहले पन्ने से ही महिला अपराधों की सूचि शुरू हो गयी जो अंदर जाकर छेड़छाड़,बलात्कार जैसे घटिया मानसिकता वाले अपराधों पर खत्म हुई !
बाहरी दुनिया के कुछ ज्यादा चिंतक-विचारक लोगों ने जगह-जगह सभा,सेमिनार, संगोष्ठी,रैली निकालकर अपनी जवाबदेही पूरी कर ली,,,पर इन सब के बीच दिमाग में एक सवाल बार-बार उठता है कि क्या कल से सच में कुछ बदलेगा...?
इन अपराधों की ख़बरों में कोई कमी आएगी..?
मुझे लगता है जरुर आएगी मगर तब जब हम परंपराओं,रीती-रिवाजों,भारतीय संस्कृति के इज्जत-मर्यादा के बोझ तले दबी हुई "नारी" को सबसे पहले एक नागरिक समझे जिसे संविधान द्वारा वे सभी अधिकार समान रूप से मिले हैं जिसे समाज के कुछ तथाकथित 'मर्द' अपना जन्मसिद्ध अधिकार या विशेषाधिकार समझते हैं..!
ये सोच अगर नहीं बदली तो फिर चाहे हम कितना भी 'गुलाब गैंग' दिखा ले या फिर आम आदमी पार्टी की तरह "आम औरत पार्टी" ही क्यूँ न बना ले..कुछ ख़ास असर नहीं होने वाला.....

Saturday, 25 January 2014

'गणतंत्र' बनाम "गनतंत्र"


गणतंत्र दिवस के अवसर पर आप सभी को शुभकामनायें।
इस समारोह के समाप्ति के साथ ही राजनीति के 'रंगा सियारों' की हुंआ-हुंआ एक बार फिर दुगने जोर-शोर से शुरू हो जाएगी।
'सेकुलरिस्म', 'भ्रष्टाचार', 'अधिकार', 'गरीबी', 'विकास' जैसे विभिन्न प्रकार के रंगों के घोल में डुबकी मारकर इन सियारों ने अपना रंग और भी गाढ़ा कर लिया है...इसलिए पहचानना थोड़ा मुश्किल है,,,पर नामुमकिन नहीं।
इसलिए जनता,,बी अलर्ट..!
इनको मौका दिया तो "अपना काम बनता-भाड़ में जाये जनता" वाला फ़ॉर्मूला हमपे कब लागू हो जाये,पता नहीं चलेगा।
सही मायनों में गणतंत्र तभी होगा जब 'तंत्र' की बागडोर 'गण' के हाथों में हो..वरना इस गणतंत्र को "गनतंत्र" में तब्दील होते देर नहीं लगेगी....बाकी तो 'आप' सयाने हैं ही।